Tuesday, June 7, 2011

Content is the king…….



content यानि कि विषयवस्तु-- हिंदी टेलीविज़न मीडिया में इससे हमें कितना फ़र्क पड़ता है ? कुछ नहीं..... यकीन मानिए, ज़रा सी भी नहीं । कहने में थोड़ा अजीब लगता है, सुनने में बुरा लगता है लेकिन रुककर सोचें- थोड़ी देर हिंदी टीवी न्यूज़ देखें तो हकीकत साफ़ नज़र आने लगती है...... आखिर सास-बहू-साजिश, हंसी के गोलगप्पे जैसे उधार के कार्यक्रमों..... एक सोनू के बोरवेल में गिर जाने पर तीन दिन दर्शकों को बंधक बनाए रखने, क्रिकेट के नाम पर बाकी सब कुछ को ताक पर रख देने, दुनिया नष्ट होने के नाम पर डराने, या फिर शीला या मुन्नी से कहीं ज़्यादा श्लील डांस को बारबालाओं का अश्लील डांस कह कर बेचने में कंटेंट क्या है- ये किस मीटिंग में डिस्कस होता है और अगर होता है तो उस पर अमल क्या होता है ये हम सभी जानते हैं, देख रहे हैं और कर रहे हैं

किसी भी स्टोरी को हम मूलतः दो भागों में बांट सकते हैं- विषयवस्तु और प्रस्तुतिकरण । कंटेंट में हम तथ्यों और विज़ुअल्स दोनों को रखेंगे, प्रस्तुतिकरण में हम मुख्यतः भाषा और एडिटिंग को रखेंगे । हमारे वक्त के हिंदी टीवी की दिक्कत ये है कि ये कंटेंट से ज़्यादा प्रेजेंटेशन पर जीने लगा है । यही वजह है कि बेहतर प्रेजेंटेशन वाले नॉन न्यूज़ उधार के प्रोग्राम न्यूज़ चैनल्स पर हावी होने लगे हैं..... एक बड़ी वजह टीआरपी भी है..... मेरी जानकारी में कोई नहीं जानता कि टैम किस आधार पर रेटिंग तय करता है... टैम का ये खेल आदिवासियों के भगवान का सा है.... ये अबूझ है- अमूर्त है लेकिन इसके बिना जिया नहीं जा सकता क्योंकि यही विज्ञापन की दुनिया का आधार है..... जब तक टीवी इंडस्ट्री के पास प्रिंट की तरह एबीसी जैसा सिस्टम नहीं आ जाता तब तक शायद टीआरपी का ये धंधा (जो गंदा है) चलता रहेगा..... अब क्योंकि टीआरपी आपके एफपीसी तय करती है तो कंटेंट के नाम पर रोने से फिलहाल कुछ हासिल नहीं है....

हालांकि टीआरपी के खेल से मुक्त होना असंभव भी नहीं है..... एनडीटीवी इंडिया वापस अपने पर लौट आया है और ये सारी इंडस्ट्री के लिए अच्छी ख़बर है..... ये सही है कि सभी मालिक प्रणब रॉय नहीं हो सकते इसलिए सभी चैनल एनडीटीवी की राह नहीं पकड़ सकते..... लेकिन एडीटीवी इंडिया का मैथड राह तो दिखाता ही है.... और ये राह हिंदी न्यूज़ इंडस्ट्री को सही दिशा में ले जा रही है- इस राह पर चलकर हम भी ये दावा कर सकते हैं कि हिंदी वाले मूर्ख नहीं होते- हिंदी वाले सिर्फ़ तमाशा पसंद नहीं सकते.... अच्छे कंटेंट की तमीज सिर्फ़ इंडिया को नहीं हिंदुस्तान को भी है....

एनडीटीवी का जिक्र चला है तो ये भी कहता चलूं कि कमाल ख़ान की स्टोरी को हम आज भी वैसे ही रुककर देखते हैं जैसे आठ साल पहले देखा करते थे । इसमें कमाल कंटेंट का नहीं (क्योंकि करीब-करीब वही कंटेंट बाकी सभी चैनलों में भी होता है) कमाल की भाषा का और प्रजेंटेशन का होता है (वैसे ये बात भी उल्लेखनीय है कि कमाल खान को साहित्यकारों को मिलने वाला अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है)

लेकिन सवाल ये है कि सिर्फ़ भाषा, एडिटिंग (वीडिओ) के चमत्कार से आप कब तक दर्शकों को बेवकू़फ़ बना सकते हैं..... शायद तब तक जब तक कि उनके (दर्शकों के पास बेहतर विकल्प नहीं है)..... वैसे एक महत्वपूर्ण तथ्य ये है कि अब ख़बरों के वो कार्यक्रम ज़्यादा देखे जा रहे हैं जिनमें ख़बरें संक्षिप्त में दी जा रही हैं, जैसे कि बस 3 मिनट या बस 5 मिनट में सारी महत्वपूर्ण ख़बरें या फिर दिन भर की ख़बरों का प्रोग्राम 24 घंटे 24 रिपोर्टर या कोई और भी (हालांकि ये तथ्य भी टैम की रिकॉर्डबुक से आया है पर हमारे पास अभी कोई विकल्प भी नहीं है)

कंटेंट ही लीड करेगा इसमें कोई शक नहीं है लेकिन सवाल ये है कि आप क्या कंटेंट दे रहे हैं..... स्टार-आईबीएन की तर्ज पर आप हर ख़बर को चिल्ला-चिल्ला कर धमाकेदार बनाकर पेश कर सकते हैं (जैसे कि कुछ लोग अपनी बात सुनाने के लिए आपको हर बार हाथ मारते हैं ) या फिर आप गंभीर बात को गंभीरता से पेश कर सकते हैं..... इंडिया टीवी का आसान और सफल विकल्प तो है ही कि डराओ- हर चीज़ से.....

लेकिन हमें याद रखना होगा कि तमाम ग्लैमर- बेहद खर्चीले सेटअप्स के बावजूद हमारे ज़्यादातर लीडिंग टीवी न्यूज़ स्टार्स प्रणव रॉय, एस पी सिंह और विनोद दुआ के सामने फीके से लगते हैं

सभी कहते हैं कि हिंदी टीवी न्यूज़ अभी शैशवकाल में है, इसे मैच्योर होने में वक्त लगेगा..... लेकिन सभी बच्चों को मैच्योर होने के लिए पूरा वक्त नहीं मिलता..... बहुत से बच्चों को परिस्थितियां वक्त से पहले मैच्योर बना देती हैं.... हाल ही में बड़ी संख्या में मिले चैनलों के लाइसेंसों ने कंपीटीशन बहुत बढ़ा दिया है.... अब जो जितना मैच्योर होगा उसे उतनी ही लीड मिलेगी..... ऐसा भी नहीं है कि ज़्यादा चैनलों के आने से पत्रकारों के लिए, पत्रकारिता के लिए स्थिति ख़राब होगी- मुझे लगता है कि ये बेहतर ही होगी..... विकल्प बढ़ेंगे- नया करने का, बेहतर करने का दबाव बढ़ेगा और ख़बरों के साथ 'खेल' करना मुश्किल होता जाएगा.....

तय है कि बीबीसी और ब्रिटिश डैबलॉयड्स की तरह एनडीटीवी इंडिया भी रहेगा और इंडिया टीवी भी..... दोनों से ज़्यादा आगे (बेहतर और बदतर) जाने वाले भी पैदा होंगे... फ़र्क सिर्फ़ और सिर्फ़ कंटेंट करेगा..... ये आपको तय करना है कि आप क्या कंटेंट दुनिया के सामने रखना चाहते हैं....

Monday, May 30, 2011

पेंसिल....चांद और समय


पेसिंल चांद और समय........इन तीनों शब्दों का मेरे जीवन में ही बड़ी ही महत्व हैं.....इन तीनों शब्दों एक साथ लिखने पर मुझे अपने ब़चपन के दिन याद आ गए....बचपन में अक्सर गर्मियों की छुटटी बिताने के लिए.... अपने ननिहाल यानि कि मामा के घर चला जाता था....मेरे मामा रात के समय घर के आंगन में सोए करते थे....मैं भी घर के आंगन मे लेटा हुआ चांद को देखकर...हमेशा अपने मामा से एक ही सवाल करता था....मामा चांद के अंदर ये काला सा धब्बा क्यों दिखाई देता हैं....मामा का हमेशा एक ही जवाब होता था.....कि बेटा कलयुग हैं...इसलिए चांद भी थोड़ा सा काला हो गया हैं....मामा के जवाब से मैं कभी संतुष्ट नही होता था...रात के अंधेरे में लालटेन की रोशनी मेंअक्सर मैं पेंसिल से कागज पर चांद की तस्वीर बनाने की कोशिश करता....पर मुझे कभी भी सुंदर और चमक बिखेरने वाले चांद में वह काला सा धब्बा बनाना अच्छा नहीं लगता....शायद बचपन से ही चांद के साथ मेरा गहरा लगाव हैं...समय बीतता गया...लेकिन मेरा चांद के साथ वैसा ही रिश्ता है...जैसा बचपन में सबका हुआ करता था....मैं अभी भी...जब भी परेशान होता हूं...चांद की तरफ देखता हूं तो चेहरे पर एक मुस्कान आ जाती है। पता नहीं ऐसा क्यों...लेकिन लगता है समय के साथ मुझे मानो चांद से प्यार हो गया है।

....मैं जबसे घर से नौकरी करने के लिए बाहर निकला हूं...उस अकेलेपन में चांद ही मेरादोस्त बन गया है। ठीक चांद ही की तरह बचपन में मेरी एक औऱ गहरी दोस्त हुआ करती थी....पेंसिल....बचपन में समय के साथ पेंसिल से नाता टूटा औऱ उसकी जगह कब बॉल पैन ने ले ली पता ही नहीं चला। लेकिन पेंसिल का इस्तेमाल मैं अब भी कभी – कभी करता हूं....औऱ चांद को देखकर अनायास ही मुझे वो दिन याद आ जाते हैं....जब पापा मुझे जन्मदिन पर तोहफे में ड्रांइगसीट व पेंसिल दिया करता थे...औऱ मैं शीट पर चांद की बेदाग तस्वीर उकेरने की कोशिश किया करता था। वो तोहफे मेरे लिए अनमोल थे....जिन्हें मैंने आज भी संभाल कर रखा हुआ है...औऱ ये तोहफे मुझे पापा की याद दिला देते हैं....लेकिन कहते हैं कि समय किसी का नहीं होता....पेंसिल भी है....चांद भी है.....वो ड्राइंग शीट भी है.....लेकिन समय में मुझसे मेरे पापा को छीन लिया....औऱ मैं अब आसमां में चांद को देखकर उसके आफ पास चमकते तारों में अपने पापा को खोजने की कोशिश करता हूं....ऐसे में ये शब्द मेरे मुंह से निकल जाते हैं.......चिट्ठी न कोई संदेश.......जाने वो कौन सा देश....जहां तुम चले गये.....जहां तुम चले गये..............।

Thursday, December 31, 2009

Monday, December 28, 2009

थरूर जी कुछ ना कुछ करेंगे जरूर


विदेश राज्य मंत्री शशि थरूर ने एक बार फिर सरकार के लिए मुश्किल खड़ी कर दी है । लगता है थरूर साहब विवादों में घिरा रहने की आदत हो गयी है । लो इस बार उन्होंने सरकार की वीजा नीति की आलोचना ही कर डाली । विदेश मंत्री एस एम कृण्णा नाराज है ,ये समझ में नहीं आता है कि आखिर चाहते क्या है ।ये हो सकता मानवीय मुल्यों को ध्यान में रखकर थरूर ने ऐसा ,कहा हो । पर ऐसी बातों बंद कमरें में भी हो सकती है ,टयूट्र जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट में नहीं कहना चाहिए । जो भी होथरूर साहब जैसे सोचते है वैसे कहना का दम रखते है। चलो ऐसाकहकर थरूर साहब ने विपक्ष को आलोचना का मौका जरूरदे दिया है । शायद आपको याद होगा महात्मा गांधी केजन्म दिवस पर सरकार अवकाश के औचित्य पर सवाल खड़ा कर दिया था । थरूर साहब कुछ सोच कर ही इस तरह के बयान देते हो । उनका अपना नजरिया हो ,परंतु टयूट्र मंत्री ये ध्यान में रखना चाहिए कि भारत सरकार में महव्वपुर्ण पद पर काबिज हैं।

Monday, November 16, 2009

किस मुगालते में है बाल ठाकरे ?


किस मुगालते में है बाल ठाकरे ?
मुंबई ठाकरे की जमीदारी नहीं है । जो मन में आया सो कह दिया । सच बात तो यह ये है कि बाल ठाकरे को डर लग लग रहा कहीं इस बात बाजी राज ठाकरे ने मार ले । वैसे भी सचिन के यह कहने पर कि वे मराठी है और उस पर उन्हें गर्व है किन्तु पहले वे भारतीय है ,उन्हें धमकी कैसे दी जा सकती है ? सचिन ने काई राजनीतिक बयान नहीं दिया था । बाल ठाकरे व राज ठाकरे दोनों ही देश को तोड़ने का काम कर रहे है । वैसे बाल ठाकरे किस मुगालते में है ? बाल ठाकरे पुरे मराठी मानुष की आवाज नहीं है । लगता है कि लोकसभा व विधानसभा में हार के बाद भी सबक नहीं लिया । मराठी जनता शिवसेना को नकार दिया है । चाचा बतीजे की राजनीति के चलते देश के माहौल बिगड़ रहा है । क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन का अपमान करने से पहले बाल ठाकरे ने एक बार सोचना चाहिए था । वैसे भी सचिन ने सच ही कहा था । बाल ठाकरे जैसे छोटी सोच वाले व्यक्ति अपनी राजनीतिक रोटी सेकने के लिए किसी का भी अपमान कर सकता है । यह बात सत्य है कि बाल ठाकरे मंुबई वासियांे के बहुत कुछ किया है । लेकिन अपनी जिंदगी के अंतिम पलों में वे इस तरह के बयान देकर क्या हासिल करना चाहते है । राज ठाकरे को इस तरह राजनीति नहीं करनी चाहिए । बाल ठाकरे से भ्रम में न रहकर वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिए । बाल ठाकरे के इस बयान में पुरे देश भर उनकी आलोचना हो रही है । बाल ठाकरे व राज ठाकरे जिन्ना की तरह कार्य कर रहे है ।देश अब बर्दाश्त नहीं करेगा । सच बात तो ये है कि बाल ठाकरे को अपने बतीजे राज ठाकरे से डर लगने लगा है । इसलिए जल्दबाजी में इस तरह के बयान दे दिया । मुझे नहीं लगता इस बयान से शिवसेना के वोट बैंक में इजाफा में होगा । असल में पिछले सत्ताह एसबीआई भर्ती परीक्षा में केवल मराठीमानुष का मुद्दा उठाकर राज ठाकरे मीडिया में थे ।अब सचिन का अपमान करके बाल ठाकरे मीडिया में बने हुए है । दोनों ही चाचा बतीजे को हमारी सलाह ये है कि अभी भी वक्त है सुधर जाओं । नहीं ंतो मराठी जनता ही तुम दोनों को सबक सिखाएगी ।

Sunday, October 18, 2009

आखिर कब दूर होगा अंधेरा ?


दोस्तों हर साल की तरह इस बार हमने अंधाधुन पटाखे फोडे़ ़,करोड़ो रूपय उड़ाए , पर क्या हासिल हुआ ? कुछ नहीं । अंधेरा से मेरा मतलब देश की गरीबी , अशिक्षा व वास्तविक समस्या से है ।क्या दिवाली पर तमाम तरीके से खर्च कर , हम किसी गरीब के चेहरे पर खुशियां ला पा रहे है ? नहीं । आखिर हम ऐसे क्यों है ? हम केवल अपना ही सोचते है । हम केवल अपना करियर , अपना परिवार और अपने लोगों के बीच ही सिमट कर रहे जाते है ।हर साल हम दिवाली पर अनावश्यक खर्च करते है । दिन रात मेहनत कर ,कमाते है व एक पल में उड़ा देते हैं। सवाल ये है कि हम अपनी खुशियों के बीच इतने खो गए है हमे कुछ और दिखता ही नहीं है। जब हम दिवाली पर कई प्रकार की मिठाई खा रहे हाते है ,तब कई लोग ऐसे होेंगे जो भूखे पेट सोने की कोशिश कर रहे होंगे , कई लोगों को यह रोशनी अच्छी नहीं लग रही होगी ,बल्कि उन्हे यह एहसास करा रही होगी कि तुम्हारे जीवन में अंधेरा है । हम लोग अपनी खुशियों में इतने लीन हो जाते है हमें दुसरों का दर्द दिखता ही नहीं है । हम लोग कभी कभी इस बात बहस कर लेते है कि हमे दिवाली पर ज्यादा पटाखें नहीं जलाने है ,ताकि पर्यावरण प्रदुषित न हो , पर परिणाम कुछ नहीं । सवाल ये है कि आखिर हम ऐसे क्यों है ? आखिर हम कब सोच के दायरे को बढा कर दुसरों की खुशियों के बारे में सोचेंगे ?

Friday, September 18, 2009

ट्वीटर मंत्री का टशन

भारतीय ट्वीटर और विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर ने इकोनॉमी क्लास को भेड़-बकरी वाला कहने से पहले परिणाम सोचे भी नहीं होगें। यदि वे सोच समझकर ये वक्तव्य अपनी साइट पर देते तो शायद देश में बवाल नहीं मचता। सोचने की बात यह हैं कि ट्वीटर मंत्री ने इसमे गलत क्या कहा है? उनका विरोध करने की जगह हमें उलटा इस वक्तव्य पर ट्वीटर मंत्री की तारीफ की जानी चाहिए की वे आम जनता से स्पष्ट तो कह रहे हैं उनकी इस देश में जगह क्या है एक नेता आमभारतीय के बारे में क्या सोचता हैं। सोचने की बात है कि शशि थरूर ने अपने वक्तव्य में क्या झूठ ? जिस तरह रेल के डिब्बे में इकोनॉमी क्लास होता है वैसे हीं हवाईजहाज में भी इकोनॉमी क्लास होता है। रेल के जनरल डिब्बे में देश की आधी से ज्यादा जनता सफर करती है उसकी हालात क्या है यह किसी से भी नहीं छुपा है। हर रेल में कम से कम दो डिब्बे जनरल के होते है उसमें लोगों की दुर्दशा भेड बकरी से ज्यादा खराब होती है। थरूर के इस बयान का पुरजोर विरोध होनें पर उन्होनें माफी तो मांग ली लेकिन कांग्रेस उन्हें माफ करने के मूड में नहीं दिख रही है। बयान बाजी के इस सिलसिलें में सभी अपना फायदा उठाने में लगे हैं देश में जिस तरह से सादगी का नाटक किया जा रहा है खबरिया चैनल इन दिखावटी नेताओं की सादगी को कवर करके मसालेदार खबर बनाने में लगे है।
लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को इन बयानबाजी और खबरों से क्या लाभ मिलने वाला हैं। अपने सौ दिन की कार्यकारिणी में कोई बडा तीर ना मारने वाले प्रधानमंत्री सचमुच चिंता में है तो उन्हें सबसे पहले अपने 78 सदस्य वालें मंत्रिमंडल में कटौती करनी चाहिए। वैसे सरकार को ऐसे ट्वीटर मंत्रियों की जरूरत हीं क्या है जो आमजनता के बलबूते पर खडें होकर उन्हें हीं कुचलने में लगे हो। जिन्हें फाइव स्टार होटलों में रहने की आदत हो वे गरीबी के दर्द को क्या समझेंगे। मंत्रियों की भीड भरे मंत्रिमंडल से आम जनता को क्या फायदा पहुंचा जो अब पहुंचेगा। मंत्रियों की छटनी करने से सरकार की सचमुच में बचत होगी। कई हारे हुए नेताओं ने अपने घर तक खाली नहीं किए है वह सरकारी संपत्ति पर आजीवन हक समझते है। यदि सरकार सचमुच में आम लोगों के लिए कुछ करना चाहती है तो सादगी के नाटक को बंद कर गरीबों की समस्या पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। वैसे भी कुछ मंत्रियों के इकोनॉमी क्लास में सफर से कोई गरीबी दूर होने वाली नहीं है और मीडिया को भी इन दिखावटी नेताओं के पीछे - पीछे दौडने से बचना चाहिए। बडे ही शर्म की बात होगी हमारे देश के मंत्री इकोनॉमी क्लास में सफर करे और देश के बिजनस मेन बिजनस क्लास में सफर करें। इन बिजनेस मेन के पास जो अतिरिक्त पैसा आता है वह आम लोगों का हीं होता है वैसे सरकार को ये बिजनेस व इकोनॉमी क्लास का चक्कर ही खत्म कर देना चाहिए ताकि गरीबी अमीरी का खेल ही समाप्त हो जाए।